सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के अन्योन्याश्रय संबंध होने का वर्णन

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के अन्योन्याश्रय संबंध होने का वर्णन

 

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के अन्योन्याश्रय संबंध होने का वर्णन

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के अन्योन्याश्रय संबंध होने का वर्णन

 

श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कंध के अष्टम अध्याय के श्लोक संख्या १५ व १६ में कहा गया है:-

 

ब्रह्मोवाच

अन्योन्यमिथुनाच्चैव विस्तारं कथ्याम्यहम्।
श्रणु नारद यज्ज्ञात्वा मुच्यते भवबंधनात्।।
सन्देहोऽत्र न कर्तव्यो ज्ञात्वेत्युक्तं मया वच:।
ज्ञातं तदनुभूतं यत्परिज्ञातं फले सति।।

 

अर्थात:- ब्रह्मा जी बोले, हे नारद! ध्यान से सुनिए, अब मैं इनके अन्योन्याश्रय संबंध से होने वाले विस्तार का वर्णन करता हूँ जिसे जानकर मनुष्य भव बंधन से छुटकारा प्राप्त कर लेता है इसमें आपको किसी प्रकार का संदेह नही करना चाहिए सम्यक प्रकार से जानकर ही मैंने यह बात कही है, मैंने पहले इसे जाना तत्पश्चात इसका अनुभव किया और पुनः परिणाम देखकर इसका परिज्ञान प्राप्त किया है।

 

हे महामते! मात्र देख लेने, सुन लेने अथवा संस्कार जनित अपने अनुभव से ही किसी भी वस्तु का तत्काल परिज्ञान नही हो जाता, जैसे किसी पवित्र तीर्थ स्थल के विषय में सुनकर किसी व्यक्ति के हिर्दय में राजसी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी और वह तीर्थ में चला गया और वहाँ उसने पहुँच कर वही देखा जो उसने सुना था उस तीर्थ में उसने स्नान कर के तीर्थ कृत्य किया और राजसी दान भी किया तथा रजोगुण से युक्त रहकर उस व्यक्ति ने कुछ समय तक वहाँ तीर्थ वास भी किया किंतु ऐसा कर के भी वह राग-द्वेष से मुक्त नही हो पाया और काम-क्रोध आदि विकारों से आच्छादित ही रहा और पुनः अपने घर लौट आया तथा पूर्व की भाँति वैसे ही रहने लगा, हे मुनीश्वर! उस व्यक्ति ने तीर्थ की महिमा तो सुनी थी किंतु उसका सम्यक अनुभव नही किया था इसी कारण से उसे तीर्थ यात्रा का कोई फल नही प्राप्त हुआ अतः हे नारद! उसका सुनना न सुनने के बराबर ही समझें, हे मुनिश्रेष्ठ! आप यह जान लें कि तीर्थ यात्रा का फल पाप से छुटकारा प्राप्त करना है यह वैसे ही है जैसे संसार में कृषि का फल उत्पादित अन्न का भक्षण है।

 

श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार रजोगुण, तमोगुण व सत्त्वगुण का वर्णन पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं।

 

पापदेहविकारा ये कामक्रोधादय: परे।
लोभो मोहस्तथा तृष्णा द्वेषो रागस्तथा मद:।।
असूयेष्र्याक्षमाशांति: पापान्येतानि नारद।
न निर्गतानि देहात्तु तावत्पापयुतो नर:।।
कृते तीर्थे यदैतानि देहान्न निर्गतानि चेत्।
निष्फल: श्रम एवैक: कर्षकस्य यथा तथा।।

 

अर्थात:- जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा, द्वेष, राग, मद, परदोष दर्शन, ईर्ष्या, सहनशीलता का अभाव और अशांति आदि है वे पापमय शरीर के विकार है, हे नारद! जब तक ये पाप शरीर से नही निकलते तब तक मनुष्य पापी ही रहता है, तीर्थ यात्रा करने पर भी यदि ये पाप देह से नही निकले तो तीर्थाटन करने का वह परिश्रम उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे उस किसान का जिसने परिश्रम पूर्वक खेत खोदा, अत्यंत कठोर भूमि को जोता, उसमें महँगा बीज बोया और अन्य आवश्यक कार्य किए तथा फल प्राप्ति की इच्छा से उसकी रक्षा के लिए दिन-रात अनेक कष्ट सहे किंतु फल लगने का समय हेमंत काल आने पर वह सो गया जिससे व्याघ्र आदि वन्य जंतुओं तथा टिड्डियों ने उस फसल को खा लिया और अंत में वह किसान सर्वथा निराश हो गया उसी प्रकार हे पुत्र! तीर्थ में किया गया वह श्रम भी कष्टदायक ही सिद्ध होता है तथा उसका कोई फल नही मिलता।

 

हे नारद! शास्त्र के अवलोकन से सत्त्वगुण समुन्नत होता है तथा बड़ी तेजी से बढ़ता है उसका फल यह होता है कि व्यक्ति तामस पदार्थों के प्रति वैराग्य हो जाता है, वह सत्त्वगुण रज और तम इन दोनों को बलपूर्वक दबा देता है, लोभ के कारण रजोगुण अत्यंत तीव्र हो जाता है वह बढ़ा हुआ रजोगुण सत्त्व तथा तम इन दोनों को दबा देता है उसी प्रकार तमोगुण मोह के कारण तीव्रता को प्राप्त होकर सत्त्वगुण तथा रजोगुण इन दोनों को दबा देता है ये गुण जिस प्रकार एक-दूसरे को दबाते हैं उसे मैं यहाँ विस्तार पूर्वक कह रहा हूँ:-

 

यदा सत्त्वं प्रवृद्धं वै मतिधर्मे स्थिता तदा।
न चिन्तयति बाह्यार्थं रजस्तम: समुद्भवम्।।

 

अर्थात:- जब सत्त्वगुण बढ़ता है उस समय बुद्धि धर्म में स्थित रहती है उस समय वह रजोगुण या तमोगुण से उत्पन्न बाह्या विषयों का चिंतन नही करती है उस समय बुद्धि सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले कार्य को अपनाती है इसके अतिरिक्त वह अन्य कार्यों में नही फँसती, बुद्धि बिना प्रयास के ही धर्म तथा यज्ञादि कर्म में प्रवृत्त हो जाती है, मोक्ष की अभिलाषा से मनुष्य उस समय सात्विक पदार्थों के भोग में प्रवृत्त रहता है तथा राजसी भोगों में लिप्त नही होता तब भला वह तमोगुणी कार्यों में क्यों लगेगा, इस प्रकार पहले रजोगुण को जीतकर वह तमोगुण को पराजित करता है, हे तात! उस समय एकमात्र विशुद्ध सत्त्वगुण ही स्थित रहता है।

 

यदा रज: प्रवृद्धनं वै त्यक्त्वा धर्मान् सनातनान्।
अन्यथा कुरुते धर्माच्छ्रद्घां प्राप्य तु राजसीम्।।

 

अर्थात जब मनुष्य के मन में रजोगुण की वृद्धि होती है तब वह सनातन धर्मों को त्यागकर राजसी श्रद्धा के वशीभूत हो विपरीत धर्माचरण करने लगता है, रजोगुण बढ़ने से धन की वृद्धि होती है और भोग भी राजसी ह्यो जाता है उस दशा में सत्त्वगुण दूर चला जाता है और उससे तमोगुण भी दब जाता है।

 

यदा तमो विवृद्धां स्यादुत्कटं सम्बभूव ह।
तदा वेदे न विश्वासो धर्मशास्त्रे तथैव च।।
श्रद्धां च ताजसीं प्राप्य करोति च धनात्ययम्।
द्रोहं सर्वत्र कुरते न शांतिमधिगच्छति।।
जित्वा सत्त्वं राजश्चैव क्रोधनो दुर्मति: शठ:।
वर्तते कामचारेण भावेषु विततेषु च।।

 

अर्थात जब तमोगुण की वृद्धि होती है और वह उत्कट ह्यो जाता है तब वेद तथा धर्मशास्त्र में विश्वास नही रह जाता उस समय मनुष्य तामसी श्रद्धा प्राप्त कर के धन का दुरुपयोग करता है, सबसे द्रोह करने लगता है तथा मन को शांति नही मिलती वह क्रोधी, दुर्बुद्धि तथा दुष्ट मनुष्य सत्त्व तथा रजोगुण को दबाकर अनेक विध तामसिक विचारों में लीन रहता हुआ मनमाना आचरण करने लगता है।

 

किसी भी प्राणी में सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण अकेले नही रहते अपितु मिश्रित धर्म वाले वे तीनों गुण एक-दूसरे के आश्रयीभूत होकर रहते हैं, हे पुरुषश्रेष्ठ! रजोगुण के बिना सत्त्वगुण और सत्त्वगुण के बिना रजोगुण कदापि नही रह सकते इस प्रकार तमोगुण के बिना ये दोनों गुण नही रह सकते अतः इस प्रकार से यह तीनों गुण परस्पर स्थित हैं, सत्त्वगुण तथा रजोगुण के बिना तमोगुण नही रहता; क्योंकि इन मिश्रित धर्म वाले सभी गुणों की स्थिति कार्य-कारण-भाव से विभिन्न प्रकार की होती है, ये तीनो गुण अन्योन्याश्रय भाव से विद्यमान रहते हैं अलग-अलग भाव से नही, प्रसव धर्मी होने के कारण ये एक-दूसरे के उत्पादक भी होते हैं, सत्त्वगुण कभी रजोगुण को तो कभी तमोगुण को उत्पन्न करता है, इसी तरह रजोगुण भी कभी सत्त्वगुण को और कभी तमोगुण को उत्पन्न करता है और ठीक इसी प्रकार तमोगुण भी कभी सत्त्वगुण को तो कभी रजोगुण को उत्पन्न करता है, ये तीनों गुण आपस में एक-दूसरे को ठीक उसी प्रकार से उत्पन्न करते हैं जिस प्रकार से मिट्टी का लोंदा घड़े को उत्पन्न कर देता है।

 

मनुष्य की बुद्धि में उपस्थित ये तीनों गुण परस्पर कामनाओं को ठीक उसी प्रकार से जागृत करते हैं जिस प्रकार से देवदत्त, विष्णु मित्र और यज्ञदत्त आदि मिलकर काम करते हैं, जिस प्रकार स्त्री और पुरुष आपस में मिथुन भाव को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार यह तीनों गुण परस्पर युग्म भाव को प्राप्त करते हैं, रजोगुण का युग्म भाव होने पे सत्त्वगुण, सत्त्वगुण का युग्म भाव होने पर रजोगुण और तमोगुण के युग्म भाव से सत्त्वगुण तथा रजोगुण दोनों उत्पन्न होते हैं।

 

जय श्री राम।

 

Astrologer:- Pooshark Jetly

Astrology Sutras (Astro Walk Of Hope)

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Email:- pooshark@astrologysutras.com

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