भागवत महापुराण के अनुसार आद्याशक्ति के प्रभाव का वर्णन एवं ब्रह्मांड के आविर्भाव की कथा

भागवत महापुराण के अनुसार आद्याशक्ति के प्रभाव का वर्णन एवं ब्रह्मांड के आविर्भाव की कथा

 

आद्याशक्ति के प्रभाव का वर्णन एवं ब्रह्मांड के आविर्भाव की कथा

आद्याशक्ति के प्रभाव का वर्णन एवं ब्रह्मांड के आविर्भाव की कथा

 

श्रीमद्देवी भागवत महापुराण के तृतीय स्कंध के द्वितीय अध्याय में व्यास जी कहते हैं कि:-

 

व्यास उवाच

यत्त्वया च महाबाहो पृष्टोऽहं कुरुसत्तम।
तान्प्रश्नान्नारद: प्राह मया पृष्टो मुनिश्वरः।।

 

अर्थात व्यास जी बोले हे महाबाहो! हे कुरुश्रेष्ठ! आपने मुझसे जो प्रश्न पूछे हैं, उन्ही प्रश्नों को मेरे द्वारा मुनिराज नारद जी से पूछे जाने पर उन्होंने इस विषय पर ऐसा कहा था:-

 

नारद उवाच

व्यास किं ते ब्रवीम्यद्य पुरायं संशयो मम।
उत्पन्नो हिर्दयेऽत्यर्थं संदेहसारपीड़ित:।।

गत्वाहं पितरं स्थाने ब्रम्हाणममितौजसम्।
अपृच्छं यत्त्वया पृष्टं व्यासाद्य प्रश्नमुत्तमम्।।

 

अर्थात नारद जी बोले हे व्यास जी! मैं आपसे इस समय क्या कहूँ? प्राचीन काल में यही शंका मेरे भी मन में उत्पन्न हुई थी और संदेह को बहुलता से मेरा मन उद्वेलित हो गया था, हे व्यास जी! तदन्तर मैंने ब्रह्म लोक में अपने अमित तेजस्वी पिता ब्रह्मा जी के पास पहुँचकर यही प्रश्न पूछा था जो उत्तम प्रश्न आपने मुझसे पूछा है।

 

पित: कुत: समुत्पन्नं ब्रह्मांडमखिलं विभो।
भवत्कृतेन वा सम्यक किं विष्णुकृतं तत्विदम्।।

रुद्रकृतं वा विश्वात्मन् ब्रूहि सत्यं जगत्पते।
आराधनीय: क: कामं सर्वोत्कृष्टश्च क: प्रभु:।।

 

अर्थात हे पिता जी! इस संपूर्ण ब्रह्मांड का आविर्भाव कैसे हुआ? हे विभो! इसका निर्माण आपने किया है अथवा विष्णु ने अथवा शिव ने इसकी रचना की है? हे विश्वात्मन्! मुझे सही-सही बताइए, हे जगत्पते! सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन है और किसकी आराधना करनी चाहिए?

 

हे ब्रह्मन! वह सब बताइए और मेरे संदेहों को दूर करिए, हे निष्पाप! मैं असत्य तथा दुःख रूप संसार में डूबा हुआ हूँ, संदेहों से दोलायमान मेरा मन तीर्थों में, देवताओं में तथा अन्य साधनों में कहीं भी नही शांत हो पा रहा है, मैं किसका स्मरण करूँ, किसका यजन करूँ, कहाँ जायूँ, किसकी अर्चना करूँ और किसकी स्तुति करूँ? हे देव! मैं उस सर्वेश्वर परमात्मा को जानता भी नही हूँ, हे सत्यवतीतनय व्यास जी! मेरे द्वारा किए गए दुरूह प्रश्नों को सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा जी ने तब मुझसे ऐसा कहा—

 

ब्राह्मोवाच

किं ब्रबीमि सुताद्याहं दुर्बोधनं प्रश्नमुक्तमम्।
त्वयाशक्यं महाभाग विष्णोरपि सुनिश्चयात्।।

रागी कोऽपि न जानाति संसारेऽस्मिन्महामते।
विरक्तश्च विजानाति निरीहो यो विमत्सरः।।

एकार्णवे पुरा जाते नष्टे स्थावरजङ्गमे।
भूतमात्रे समुत्पन्ने सञ्जज्ञे कमलादहम्।।

 

अर्थात ब्रह्मा जी बोले हे पुत्र! तुमने आज एक दुरूह तथा उत्तम प्रश्न किया है, उसके विषय में मैं क्या कहूँ हे महाभाग! साक्षात् विष्णु जी द्वारा भी इसका निश्चित उत्तर दिया जाना संभव नही है, हे महामते! इस संसार के क्रियाकलापों में आसक्त कोई भी ऐसा नही है जो इस तत्व का ज्ञान रखता हो कोई विरक्त, निःस्पृह तथा विद्वेषरहित ही इसे जान सकता है।

 

प्राचीनकाल में जल प्रलय होने पर स्थावर-जंगमादिक प्राणियों के नष्ट हो जाने तथा मात्र पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होने पर मैं कमल में आविर्भूत हुआ तथा उस समय मैंने सूर्य, चंद्र, वृक्षों तथा पर्वतों को नही देखा और कमल कर्णिका पर बैठा हुआ विचार करने लगा:-

 

कस्मादहं सुमुद्भूत: सलिलेऽस्मिन्महार्णवे।
को मे त्राता प्रभु: कर्ता संहर्ता वा युगात्यये।।

 

अर्थात कि इस महासागर के जल में में मेरा प्रादुर्भाव किससे हुआ? मेरा निर्माण करने वाला, रक्षा करने वाला तथा युगांत के समय संहार करने वाला प्रभु कौन है? कहीं भूमि भी स्पष्ट नही दिखाई दे रही है, जिसके आधार पर यह जल टिका है तो फिर यह कमल कैसे उत्पन्न हुआ, जिसकी उत्पत्ति जल और पृथ्वी के संयोग से ही प्रसिद्ध है, आज मैं इस कमल का मूल आधार पंक अवश्य देखूँगा; और फिर उस पंक की आधार स्वरूपा भूमि भी अवश्य मिल जाएगी, इसमें संदेह नही है।

 

उत्तरन्सलिले तत्र यावद्वर्षसहस्त्रकम्।
अन्वेषामाणो धरणीं नावाप तां यदा तदा।।

तपस्तपेति चाकाशे वागभूदशरीरिणी।
ततो मया तपस्तप्तं पद्मे वर्षसहस्त्रकम्।।

 

अर्थात:- ब्रह्मा जी बोले, हे महामते! तदन्तर मैं जल में नीचे उतरकर हजारों वर्षों तक पृथ्वी को खोजता रहा, किंतु जब उसे नही पाया तब आकाशवाणी हुई कि “तपस्या करो” तत्पश्चात मैं उसी कमल पर आसीन होकर हजारों वर्षों तक घोर तपस्या करता रहा, इसके बाद पुनः एक अन्य आकाशवाणी उत्पन्न हुई “सृष्टि करो” इसे मैंने साफ-साफ सुना उसे सुनकर व्याकुल चित्त वाला मैं सोचने लगा किसका सृजन करूँ और किस प्रकार करूँ, उसी समय:-

 

तदा दैत्यावपि प्राप्तौ दारुणौ मधुकैटभौ।
ताभ्यां विभिषितश्चाहं युद्धाय मकरालये।।

 

मधु-कैटभ नाम वाले दो भयानक दैत्य मेरे सम्मुख आ गए, उस महासागर में युद्ध के लिए तत्पर उन दोनों दैत्यों से मैं अत्यधिक भयभीत हो गया तत्पश्चात मैं उसी कमल की नाल का आश्रय लेकर जल के भीतर उतरा और वहाँ एक अत्यंत अद्भुत पुरुष को मैंने देखा।

 

मेघश्यामशरीरस्तु पीत्वासाश्चतुर्भुज:।
शेषशायी जगन्नाथो वनमालाविभूषित:।।

 

अर्थात उनका शरीर मेघ के समान श्याम वर्ण वाला था, वे पीत वस्त्र धारण किए हुए थे और उनकी चार भुजाएं थीं, वे जगत्पति वनमाला से अलंकृत थे तथा शेषशय्या पर सो रहे थे, वे शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि आयुध धारण किए हुए थे इस प्रकार मैंने शेषनाग की शय्या पर शयन करते हुए उन महाविष्णु को देखा।

 

हे नारद जी! योगनिद्रा के वशीभूत होने के कारण निष्पंद पड़े उन भगवान् अच्युत को शेषनाग के ऊपर सोया हुआ देखकर मुझे अद्भुत चिंता हुई और मैं सोचने लगा कि अब मैं क्या करूँ? तब मैंने निद्रास्वरूपा भगवती का स्मरण किया और मैं उनकी स्तुति करने लगा, मेरी स्तुति से वे कल्याणकारी भगवती विष्णु भगवान जी के शरीर से निकलकर आकाश में विराजमान हुईं, उस समय दिव्य आभूषणों से अलंकृत वे भगवती कल्पनाओं से परे विग्रह वाली प्रतीत हो रही थीं इस प्रकार विष्णु जी का शरीर तत्काल छोड़कर जब वे आकाश में विराजित हो गईं तब उनके द्वारा मुक्त किए गए अनंतात्मा वे जनार्दन उठ गए।

 

पञ्चवर्षसहस्त्राणि कृतवान्युद्धमुक्तमम्।
तदा विलोकितौ दैत्यौ हरिणा विनिपातीतौ।।

 

अर्थात तत्पश्चात उन्होंने पाँच हजार वर्षों तक युद्ध किया, पुनः उन महामाया भगवती के दृष्टिपात से मोहित किए गए उन दोनों दैत्यों को भगवान विष्णु ने अपनी जांघों को विस्तृत कर के उनका वध कर दिया, उसी समय जहाँ हम दोनों थे वहीं पर शंकर जी भी आ गए, तब हम तीनों ने गगन-मंडल में विराजमान उन मनोहर देवी को देखा, हम लोगों के द्वारा उन परम शक्ति की स्तुति किए जाने पर अपनी पवित्र कृपा दृष्टि से हम लोगों को प्रसन्न कर के उन्होंने वहाँ स्थित हम लोगों से कहा:-

 

देवयुवाच

काजेशा: स्वानि कार्याणि कुरुध्वं समतन्द्रिता:।।

सृष्टिस्थितिविशिष्टानि हतावेतौ महासुरौ।
कृत्वा स्वानि निकेतानि वसध्यं विगतज्वरा:।।

प्रजाश्चतुर्विद्या: सर्वा: सृजध्वं स्वविभूतिभि:।

 

अर्थात देवी बोलीं- हे ब्रह्मा, विष्णु, महेश! अब आप लोग सृष्टि, पालन एवं संहार के अपने-अपने कार्य प्रमाद रहित होकर कीजिए अब आप लोग अपना-अपना निवास बनाकर निर्भीकता पूर्वक रहिए क्योंकि उन दोनों महादैत्यों का संहार हो गया है अतः आप लोग अपनी विभूतियों से अण्डज, पिण्डज, उद्भिज्ज और स्वदेज चारों प्रकार की प्रजाओं का सृजन कीजिए।

 

तब ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने उन भगवती का वह मनोहर, सूखकर तथा मधुर वचन सुनकर उनसे कहा हे माता! हम लोग शक्तिहीन हैं, अतः इन प्रजाओं का सृजन कैसे करें? अभी विस्तृत पृथ्वी ही नही है और सभी ओर जल ही जल भरा हुआ है, सृष्टि कार्य के लिए आवश्यक पंचतत्व, गुण, तन्मात्राएँ और इन्द्रियाँ ये कुछ भी नही है हम लोगों के वचन सुनकर भगवती का मुखमंडल मुस्कान से भर उठा तथा उसी समय वहाँ आकाश से रमणी विमान आ पहुँचा तत्पश्चात् उन भगवती ने कहा हे देवताओं! आप लोग निर्भीक होकर इस विमान में इच्छानुसार बैठ जाएँ।

 

हे ब्रह्मा, विष्णु और शिव! मैं आप लोगों को आज इस विमान में एक अद्भुत दृश्य दिखाऊँगी, उनका यह वचन सुनकर हम तीनों उनकी बात स्वीकार कर के रत्नजटित, मोतियों की झालरों से शोभायान, घंटियों की ध्वनि से गुंजित तथा देव भवन के तुल्य उस रमणीक विमान पर संशय रहित भाव से चढ़कर बैठ गए तब भगवती ने हम जितेंद्रिय देवताओं को बैठा हुआ देखकर उस विमान को अपनी शक्ति से आकाशमण्डल में उड़ाया।

 

शेष इसके आगे की कथा अगले लेख में श्रीमद्देवी भागवत महापुराण के तृतीय स्कंध के तृतीय अध्याय भागवत महापुराण के अनुसार देवी लोक के दर्शन व ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी का आश्चर्यचकित होना में…….

 

जय श्री राम।

 

Astrologer:- Pooshark Jetly

Astrology Sutras (Astro Walk Of Hope)

Mobile:- 9919367470, 7007245896

Email:- pooshark@astrologysutras.com

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