सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का वर्णन श्रीमद्देवीभागवत महापुराण अनुसार
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का वर्णन श्रीमद्देवीभागवत महापुराण अनुसार
श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कंध के अष्टम अध्याय में ब्रह्मा जी कहते हैं:-
ब्रह्मोवाच
सर्गोऽयं कथितस्तात यत्पृष्टोऽहं त्वयाधुना।
गुणानां रूपसंस्थां वै श्रृणुष्वैकाग्रमानस:।।
सत्त्वं प्रीत्यात्मकं ज्ञेयं सुखात्प्रीतिसमुद्भव:।
आर्जवं च तथा सत्यं शौचं श्रद्धा क्षमा धृति:।।
अनुकम्पा तथा लज्जा शांति: संतोष एव च।
एतै: सत्त्वप्रतीतिश्च जायते निश्चला सदा।।
अर्थात ब्रह्मा जी बोले– हे तात! आपने जो मुझसे पूछा था वह सृष्टि का वर्णन मैंने कर दिया अतः अब गुणों का स्वरूप कहता हूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो।
सत्वगुण को प्रीति स्वरूप समझना चाहिए, वह प्रीति सुख से संपन्न होती है सरलता, सत्य, शौच, श्रद्धा, क्षमा, धैर्य, कृपा, लज्जा, शांति और संतोष इन लक्षणों से निश्चल सत्वगुण की प्रीति होती है, सत्वगुण का वर्ण श्वेत है यह सर्वदा धर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न करता है, सत्-श्रद्धा का आविर्भाव करता है तथा असत्-श्रद्धा को समाप्त करता है, तत्त्वदर्शी मुनियों ने तीन प्रकार की श्रद्धा बताई है– सात्त्विकी, राजसी एवं तीसरी तामसी।
रक्तवर्णं रज: प्रोक्तमप्रीतिकरमद्भुतम्।
अप्रीतिर्दु:खयोगत्वाद्भवत्येव सुनिश्चिता।।
प्रद्वेषोऽथ तथा द्रोहो मत्सर: स्तंभ एव च।
उत्कण्ठा च तथा निद्रा श्रद्धा तत्र च राजसी।
मानो मदस्तथा गर्वो रजसा किल जायते।
प्रत्येवयं रजस्त्वेतैर्लक्षणैश्च विचक्षणै:।।
अर्थात रजोगुण रक्तवर्ण वाला कहा गया है यह आश्चर्य एवं अप्रीति को उत्पन्न करता है दुःख से योग के कारण ही निश्चित रूप से अप्रीति उत्पन्न होती है जहाँ ईर्ष्या, द्रोह, मत्सर, स्तंभन, उत्कण्ठा एवं निद्रा होती है वहॉं राजसी श्रद्धा रहती है अभिमान, मद और गर्व ये सब भी राजसी श्रद्धा से ही उत्पन्न होते हैं अतः विद्वान् मनुष्यों को चाहिए कि वे इन लक्षणों द्वारा राजसी श्रद्धा समझ लें।
कृष्णवर्णं तम: प्रोक्तं मोहनं च विषादकृत्।
आलस्यं च तथाज्ञानं निद्रा दैन्यं भयं तथा।।
विवादश्चैव कार्पण्यं कौटिल्यं रोष एव च।
वैषम्यं वातिनास्तिक्यं परदोषानुदर्शनम्।।
प्रत्येतव्यं तमस्त्वेतैर्लक्षणै: सर्वथा बुधै:।
तामस्या श्रद्धया युक्तं परतापोपपादकम्।।
अर्थात तमोगुण का वर्ण कृष्ण होता है यह मोह और विषाद उत्पन्न करता है आलस्य, अज्ञान, निद्रा, दीनता, भय, विवाद, कायरता, कुटिलता, क्रोध, विषमता, अत्यंत नास्तिकता और दूसरों के दोषों को देखने का स्वभाव ये तीन तामसिक श्रद्धा के लक्षण हैं, तामसी श्रद्धा से युक्त ये सभी लक्षण परपीड़ादायक हैं।
सत्त्वं प्रकाशयितव्यं नियन्तव्यं रज: सदा।
संहर्तव्यं तम: कामं जनेन शुभमिच्छता।।
अर्थात आत्मकल्याण की इच्छा रखने वालों को अपने में निरंतर सत्वगुण का विकास करना चाहिए, रजोगुण पर नियंत्रण रखना चाहिए तथा तमोगुण का नाश करना चाहिए, ये तीनों गुण एक-दूसरे का उत्कर्ष होने की दशा में परस्पर विरोध करने लगते हैं ये सभी एक-दूसरे के आश्रित हैं, निराश्रय होकर नही रहते, तीनों गुण सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में से कोई एक अकेला कभी नही रह सकता ये सभी सदैव मिलकर रहते हैं इसलिए ये अन्योन्याश्रय संबंध वाले कहे गए हैं।
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के अन्योन्याश्रय संबंध होने का वर्णन अगले भाग में…..
जय श्री राम।
Astrologer:- Pooshark Jetly
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